तुमने पूछा
जब तुम नहीं रहोगी
तो कौन सी कविता लिखूँगा मैं ?
उस पर तुम्हारी जिद
अभी सुना दो
जाने के बाद कैसे पढ़ूँगी मैं
उफ ...आखिर ले ही लिया इम्तिहान मोहब्बत का
आखिर जिंदा ही आग लगा दी चिता को
और देखो अब सिंक रहा हूँ मैं
तुम्हारे तपाए तवे की तपिश में
कितना दुरूह है ये ख्याल
कभी सोचा तुमने ?
और मुझे कह रही हो
लिखो वो जो तुम तब महसूसोगे
जो कल होना है
वो आज महसूसना ...क्या इतना आसान है?
उन पलों से गुजरना
जैसे दोजख की आग में जल रहा हो कोई
फिर भी तुम्हारी ख्वाहिश है ना
तो कोशिश जरूर करूँगा
शायद इसके बाद ना फिर कभी कुछ कह सकूँगा
शायद तुम्हारे जाने के बाद भी नहीं...
शायद आखिरी कलाम हो ये मेरा
मेरी मोहब्बत के नाम
चलो बाँध देता हूँ बाँध आखिरी मोहब्बत के नाम
(ख्यालों ने जब ओढ़ा "उसके जाने के बाद का आवरण" तो रसवंती फ़ुहार सी गिरी उसकी मोहब्बत और सिमट गई पन्ने में रस बनकर कुछ इस तरह...)
मेरी खामोश मोहब्बत की दस्तखत थीं तुम
जिसमे मैंने पलों को नहीं सँजोया था
नहीं सँजोया था तुम्हारी हँसी को
तुम्हारी चहलकदमी को
तुम्हारी उदासी या खिलखिलाहट को
नहीं थी तुम मेरे लिए सिर्फ मेरी प्रियतमा
जीवन संगिनी या कोई अप्सरा
जो सँजो लेता यादों के आशियाने में तुम्हें
ये तुम जानती थीं तुम क्या थीं मेरे लिए
थीं क्यों कहूँ तुम क्या हो मेरे लिए
क्योंकि तुम गई कहाँ हों
यहीं तो हो ...मेरे वजूद में
अपनी उपस्थिति का अहसास करातीं
तभी तो देखो ना
सुबह सुबह सबसे पहले
प्रभु सुमिरन, दर्शन के बाद
रोज लग जाता हूँ उसी तरह गृहकार्य में
और समेट लेता हूँ
सुबह का दिव्य आलोकित नाद अपने अंतरपट में
बिल्कुल वैसे ही
जैसे तुम किया करती थीं
तो बताओ कहाँ जुदा हो तुम
जो सहेजूँ यादों के छोरों में
दिन के चढ़ने के साथ बढ़ता ताप
मुझे बैठा देता है अपने पास
जहाँ मैं अपनी कल्पनाओं को उड़ान देता हूँ
और पता ही नहीं चलता
वक्त खुद गुजरा या मैंने उसे रुसवा किया
क्योंकि मेरे पास आकर
वक्त भी खामोशी से मुझे ताकता है
कि कब सिर उठाऊँ और उसे आवाज दूँ
मेरी साधना में बाधा नहीं डाल पाता
तो खुद मायूस हो ताकता रहता है मुझे
बिल्कुल वैसे ही जैसे जब तुम थीं
तो यूँ ही साधनामग्न हो जाती थीं
और वक्त तुम्हारे पायताने पर
कुलाँचें भरता रहता था
बताओ फिर कैसे वजूद जुदा हुए
तुम मुझमे ही तो सिमटी हो
कोई भी कड़ी ऐसी नहीं जो भिन्न हो
फिर कहो तो कौन किसे याद करे
यहाँ तो खुद को ढूँढ़ने निकलता हूँ
तो तुम्हारा पता मिल जाता है
और मैं तुम्हारे घर की चौखटों पर
अपने अक्स से बतियाता हूँ
पता ही नहीं चलता
कौन किससे बतिया रहा है
सुना है दीवाना कहने लगे हैं कुछ लोग
मगर नहीं जानते ना
तुम मेरी लिए सिर्फ प्रेयसी या पत्नी ही नहीं थीं
बल्कि मेरी प्रकृति बन गई थीं / नहीं बन गई हो
तभी तो कब कोई भी वजूद
अपनी प्रकृति बदल सकता है
और सुना है इनसान का सब कुछ बदल सकता है
मगर प्रकृति नहीं ...स्वाभाविक होती है
शायद तभी तो नहीं खोजता तुम्हें
नहीं ढूँढ़ता तुम्हें घर आँगन में
तस्वीरों के उपादानों में
यादों के गलियारों में
तन्हाई की महफिलों में
क्योंकि जुदा वजूदों पर ही दस्तावेज लिखे जाते हैं
और तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो ...ओ मेरी जीवनरेखा !!